“अयोध्या नगरी कितनी प्राचीन है, आपको इसका अंदाजा है क्या? यहां तक कि भारतीय वेदों और शास्त्रों में भी इसे उच्च कीर्ति प्राप्त है। अथर्ववेद में भी इस नगरी का स्पष्ट साक्षात्कार होता है। हमारी सांस्कृतिक धाराओं में अयोध्या नगरी हमेशा से श्रीराम की जन्मस्थली के रूप में अभिज्ञात रही है। अयोध्या का धार्मिक इतिहास हमने रामायण में पढ़ा है, लेकिन इसके इतिहास का एक पन्ना विवादित भी है, जिसमें हम बाबरी मस्जिद और उससे जुड़ी घटनाओं की ओर देख सकते हैं। इस समय पूरे भारत में श्रीराम की मूर्ति के पूजन से हर्षोल्लास का माहौल है। इस पर्व के दौरान, क्यों न इतिहास की गलियारों में एक बार विचार किया जाए?”
आज हम उन दिनों की चर्चा करेंगे, जिन दिनों ने वर्तमान समय में राम मंदिर का स्वरूप निर्धारित करने में सहायक बना। बहुत से लोग मानते हैं कि यह विवाद 70 सालों से चला आ रहा है, लेकिन इसकी नींवें वास्तव में 16वीं सदी में ही रखी गई थीं। हालांकि, इससे पहले भी अयोध्या नगर में मंदिर और मस्जिद के विवाद हुए थे, लेकिन आधुनिक इतिहास के प्रारंभ से हम साल 1528 से ही देख सकते हैं।
साल 1528-29 के बीच, बाबरी मस्जिद का निर्माण किया गया था
अयोध्या का विवाद बाबरी मस्जिद के चारों ओर से घेरा हुआ है। इसकी शुरुआत हुई थी साल 1528 में, जब बाबर के सेनापति मीर बाकी ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद की नींव रखी। इस मस्जिद को मुग़ल काल की एक महत्वपूर्ण स्थान माना जाता था। बाबरी मस्जिद के बारे में मॉडर्न डॉक्युमेंट्स में भी जिक्र है, जैसे कि साल 1932 में प्रकाशित किताब ‘अयोध्या: ए हिस्ट्री’ में बताया गया है कि मीर बाकी को बाबर ने ही आदेश दिया था कि अयोध्या में राम जन्मभूमि है, और यहां के मंदिर को तोड़कर मस्जिद की निर्माण करना होगा।
बाबरी मस्जिद कैसे बनाई गई थी?
बाबर के सिपाही द्वारा निर्मित इस मस्जिद को ‘बाबरी’ मस्जिद कहा गया था। हालांकि, इस मुद्दे पर आज भी एक विवाद है कि क्या बाबरी मस्जिद को मंदिर की सामग्री से ही बनाया गया था, या कि वह मंदिर को तोड़कर बनाई गई थी। कई पुस्तकें इस बारे में विभिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत करती हैं, लेकिन इतिहास में इस घटना के समय की सटीक जानकारी का अभाव है।
विवाद की पहली राह पर दिखाई दी गई थी जब मस्जिद बनी थी, और इसके बाद 300 वर्षों बाद विवाद पुनः प्रारंभ हुआ। इस विवाद का आगाज हुआ जब 1853 से 1855 के बीच अयोध्या के मंदिरों के संरक्षण के संबंध में विवाद उत्पन्न हुआ। इंडियन हिस्ट्री कलेक्टिव की रिपोर्ट के अनुसार, उस समय सुन्नी मुसलमानों ने हनुमानगढ़ी मंदिर पर हमला किया, दावा करते हुए कि यह मंदिर मस्जिद के रूप में बनाया गया था, हालांकि इसका कोई सबूत नहीं मिला।
सर्वपल्ली गोपाल की पुस्तक ‘एनाटॉमी ऑफ अ कन्फ्रंटेशन: अयोध्या एंड द राइज ऑफ कम्युनल पॉलिटिक्स इन इंडिया’ में भी इस घटना का विस्तारपूर्ण विवेचन किया गया है। किताब में उल्लेख है कि उस समय हनुमानगढ़ी मंदिर बैरागियों के अधीन था और उन्होंने मुसलमानों के गुट को आसानी से हटा दिया था।
राम मंदिर विवाद :
तत्कालीन नवाब वाजिद अली शाह से उस पर शिकायत भी की गई थी। उस समय अयोध्या नवाबों के अधीन था, और इस मुद्दे को सुलझाने के लिए एक कमेटी बनाई गई थी। इस कमेटी की जाँच रिपोर्ट में स्पष्ट हुआ कि वहाँ कोई मस्जिद ही नहीं थी। उस समय नवाब वाजिद अली शाह ने हनुमानगढ़ी मंदिर पर एक और हमले को रोका था।
अंग्रेजी सरकार ने सुलह करने की कोशिश की। एक रिपोर्ट के अनुसार, 1858 में एक निहंग सिख दल ने बाबरी मस्जिद में घुसकर हवन-पूजन किया था। इस घटना के खिलाफ पहली बार एफआईआर दर्ज हुई थी और इसमें लिखा गया था कि अयोध्या में मस्जिद की दीवारों पर राम का नाम लिखा गया था और उसके बगल में एक चबूतरा बना हुआ था।
1859 में अंग्रेजी सरकार ने इसे दोनों पक्षों को शांति से अलग-अलग स्थानों पर पूजा और इबादत करने के लिए एक दीवार से बांट दिया। इस से पहले राम चबूतरा शब्द पहली बार प्रचलित हुआ था।
1885 में सुप्रीम कोर्ट में पहली बार राम लला का मामला आया। एससीओ की रिपोर्ट के अनुसार, महंत रघुवीर दास ने राम चबूतरे पर मंदिर बनवाने की याचिका दायर की थी, लेकिन यह याचिका खारिज कर दी गई थी। फिर भी, रघुवीर दास ने अपनी हार नहीं मानी और अंग्रेजी सरकार के जज के सामने गुहार लगाई, लेकिन उसे भी खारिज कर दिया गया। इसके बाद भी मामला ठंडे बस्ते में रहा और अगले 48 सालों तक शांतिपूर्ण विरोध होता रहा।
साल 1930 का दौर, जब अयोध्या में एक नया अध्याय शुरू हुआ। साल 1936 में, मुसलमानों के दो समुदायों शिया और सुन्नी के बीच विवाद हुआ, जिसमें दोनों बाबरी मस्जिद के अधिकार का दावा कर रहे थे। इस विवाद में दोनों समुदायों के बीच 10 वर्षों तक झगड़ा चला। इस झगड़े में जज ने फैसला करते हुए शिया समुदाय के दावों को खारिज कर दिया गया।
बाबरी मस्जिद की तोड़फोड़।
सन् 1947 के बाद, अयोध्या की राजनीति में बड़ा परिवर्तन हुआ है। आधुनिक समय में, जब भी अयोध्या का जिक्र होता है, वहां राजनीति का शब्द अविवाद सामने आता है। हालांकि, इसका आरंभ बंटवारे के बाद हुआ था। पाकिस्तान का निर्माण हुआ और अब अयोध्या में हिंदू महासभा की सक्रियता दिखाई दी।
कृष्णा झा और धीरेन्द्र के झा की पुस्तक ‘अयोध्या- द डार्क नाइट’ सहित कई पुस्तकें इस विषय पर चर्चा करती हैं, जिनमें कहा गया है कि सन् 1947 के अंत में ही हिंदू महासभा ने एक बैठक आयोजित की थी, जिसमें बाबरी मस्जिद पर कब्जे की बात की गई थी। इसके बाद, पहले चुनावों में कांग्रेस ने राम मंदिर को मुद्दा बनाया।
कांग्रेस के इस मुद्दे के बाद, कोई भी दूसरी पार्टी इस पर टिक नहीं पाई और फैजाबाद में भी कांग्रेस को जीत मिली।
सन् 1949 में, बाबरी मस्जिद में राम लला की मूर्ति मिली। हालात तब बहुत खराब थे। अफवाहें आ रही थीं कि हिंदू पक्ष ने बाबरी मस्जिद पर कब्जा कर लिया है, लेकिन इससे पहले ऐसा नहीं हुआ था। स्थिति को सुधारने के लिए कानूनी मदद ली गई, लेकिन सन् 1949 की एक रात को वहां राम मूर्ति मिलने का दावा किया गया।
बाबरी मस्जिद और राम मूर्ति
इस घटना के बाद, हालात इतने गंभीर हो गए कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने संज्ञान लिया। मात्र 6 दिनों के भीतर ही बाबरी मस्जिद पर ताला लगा दिया गया। उस समय हिंदू पक्ष ने दावा किया कि राम लला की मूर्ति स्वतंत्रता से पहले ही वहां प्रकट हो गई है, लेकिन इस दावे को खारिज कर दिया गया।
साल 1950 में एक बार फिर से केस दो अलग-अलग कोर्टों में दाखिल किए गए और हिंदू पक्ष ने रामलला की पूजा की आज्ञा मांगी। हालांकि, कोर्ट ने इजाजत दी, लेकिन अंदरूनी गेट को बंद रखा गया।
साल 1959 में निर्मोही अखाड़े ने एक तीसरा केस फाइल किया, जिसमें उन्होंने बाबरी मस्जिद की ज़मीन पर अधिकार मांगा। ऐसे ही साल 1961 में मुस्लिम पक्ष ने एक केस फाइल किया जिसमें यूपी सुन्नी वक्फ बोर्ड ने कहा कि उन्हें बाबरी मस्जिद के ढांचे पर हक चाहिए और राम की मूर्तियों को यहां से हटा दिया जाना चाहिए।
साल 1984 से एक बार फिर से गरमाया राम जन्मभूमि का विवाद। इस समय अयोध्या ने अपना सबसे बड़ा राजनीतिक दौर देखा। यह वक्त था, जब राम मंदिर आंदोलन की शुरुआत हुई थी। इसी समय बीजेपी के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी को इस आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए चुना गया था।
साल 1986 में राजीव गांधी सरकार के आदेश पर बाबरी मस्जिद के अंदर का गेट खोला गया। दरअसल, उस समय लॉयर यूसी पांडे ने फैजाबाद सेशन कोर्ट में याचिका दायर की थी कि फैजाबाद सिटी एडमिनिस्ट्रेशन ने इसका गेट बंद करने का फैसला सुनाया था, इसलिए इसे खोला जाना चाहिए। तब हिंदू पक्ष को यहां पूजा और दर्शन की अनुमति भी दी गई और बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी ने इसके खिलाफ प्रोटेस्ट भी किया।
साल 1989 में रखी गई थी राम मंदिर की नींव उस समय तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने विश्व हिंदू परिषद को विवादित जगह पर शिलान्यास करने की अनुमति दे दी थी। इसके बाद, पहली बार रामलला का नाम इलाहाबाद हाई कोर्ट पहुंचा था, जिसमें निर्मोही अखाड़ा (1959) और सुन्नी वक्फ बोर्ड (1961) ने रामलला जन्मभूमि पर अपना दावा पेश किया।
साल 1992 में गिराई गई बाबरी मस्जिद
6 दिसंबर 1992 को वह दिन आया था जब बाबरी मस्जिद को गिराया गया। यह दिन भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना के रूप में दर्ज है, जिसमें कारसेवकों ने एक अस्थायी मंदिर की नींव रख दी।
मस्जिद की विध्वंस के 10 दिनों बाद, प्रधानमंत्री ने रिटायर्ड हाई कोर्ट जस्टिस एम.एस. लिब्रहान को नेतृत्व में एक कमेटी बनाई, जिसका कार्य मस्जिद की विध्वंस और सांप्रदायिक दंगों के संबंध में रिपोर्ट तैयार करना था।
जनवरी 1993 में, अयोध्या की ज़मीन को नरसिम्हा राव की सरकार ने अधीन ले लिया और 67.7 एकड़ क्षेत्र को केंद्र सरकार की स्वामित्व घोषित किया गया।
1994 में, इस्माइल फारूकी जजमेंट आया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने 3:2 बहुमत से अयोध्या में कुछ क्षेत्रों के अधिग्रहण अधिनियम की संवैधानिकता को बरकरार रखा और यह भी कहा कि कोई भी धार्मिक स्थल सरकारी हो सकता है।
2002 में राम मंदिर की मांग में वृद्धि होने लगी और अप्रैल 2002 में अयोध्या टाइटल डिस्प्यूट शुरू हुआ, जिस पर इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच में सुनवाई हुई।
अगस्त 2003 में, भारतीय पुरातात्व सर्वे (ASI) ने मस्जिद के स्थान पर खुदाई शुरू की और यह दावा किया कि इसके नीचे 10वीं सदी के मंदिर के साक्ष्य हैं।
2009 में, 17 साल के बाद लिब्राहन कमीशन ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें बहुत विचार नहीं किए गए।
30 सितंबर 2010 को अयोध्या मामले का ऐतिहासिक फैसला हुआ, जिसमें इलाहाबाद हाई कोर्ट ने ज़मीन को तीन हिस्सों में बांटा, जिसमें 1/3 हिस्सा निर्मोही अखाड़ा को, 1/3 हिस्सा सुन्नी वक्फ बोर्ड को, और 1/3 हिस्सा राम लला विराजमान को दिया गया।
2017 में चीफ जस्टिस खेहर ने तीनों पार्टियों को आउट ऑफ कोर्ट सेटलमेंट के बारे में कहा, जिसपर फिर एक बार बहस शुरू हुई।
2018 में, सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला दिया, लेकिन इसे जगह जगह नहीं किया गया। उस समय, सुप्रीम कोर्ट ने बड़ी बेंच के तहत उनके फैसले की जांच करने से मना कर दिया था।
आखिरकार, 2019 में एक ऐतिहासिक फैसला आया। चीफ जस्टिस गोगोई ने 2019 में 5 जजों की बेंच बनाई और पहले के 2018 फैसले को रद्द कर दिया। 8 मार्च 2019 को दो-दिन की सुनवाई के बाद, जमीनी विवाद को सुलझाने की बात फिर से कही गई।
नवंबर 2019 तक, सुप्रीम कोर्ट ने हिंदू पक्ष के हित में फैसला किया और राम मंदिर को एक ट्रस्ट के माध्यम से बनवाने का आदेश दिया। इसके साथ ही, सुन्नी वक्फ बोर्ड को 5 एकड़ ज़मीन दी गई, जहां अयोध्या में मस्जिद बनवाने की योजना थी। दिसंबर तक, इस मुद्दे पर कई पिटीशन दाखिल की गई और सुप्रीम कोर्ट ने इसे खारिज कर दिया।
फरवरी 2020 में, श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट की स्थापना हुई, जिसकी घोषणा लोकसभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने की।
सुन्नी वक्फ बोर्ड ने 5 एकड़ ज़मीन स्वीकार की और अगस्त 2020 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राम मंदिर का शिलान्यास किया।
अब, 22 जनवरी 2024 को, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा रामलला की मूर्ति का प्राण-प्रतिष्ठा किया जाएगा।
जय श्री राम